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सोजे-ए-वतन--मुंशी प्रेमचंद


शोक क
आह! क्या मैं इसी लडक़ी के साथ ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हूँगा? .... इस सवाल ने मेरे उन तमाम हवाई क़िलों को ढा दिया जो मैंने अभी-अभी बनाये थे। क्या मैं मिस लीला से हमेशा के लिए हाथ धो लूँ? नामुमकिन है। मैं कुमुदिनी को छोड़ दूँगा, मैं अपने घरवालों से नाता तोड़ लूँगा, मैं बदनाम हूँगा, परेशान हूॅँगा, मगर मिस लीला को ज़रूर अपना बनाऊँगा।
इन्हीं ख़यालों के असर में मैंने अपनी डायरी लिखी और उसे मेज पर खुला छोडक़र बिस्तर पर लेटा रहा और सोचते-सोचते सो गया।
सबेरे उठकर देखता हूँ तो बाबू निरंज़नदास मेरे सामने कुर्सी पर बैठे हैं। उनके हाथ में डायरी थी जिसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं बड़े चाव से लिपट गया। अफ़सोस, अब उस देवोपम स्वभाव वाले नौजवान की सूरत देखनी न नसीब होगी। अचानक मौत ने उसे हमेशा के लिए हमसे अलग कर दिया। कुमुदिनी के सगे भाई थे, बहुत स्वस्थ, सुन्दर और हँसमुख, उम्र मुझसे दो ही चार साल ज़्यादा थी, ऊँचे पद पर नियुक्त थे, कुछ दिनों से इसी शहर में तबदील होकर आ गये थे। मेरी और उनकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। मैंने पूछा-क्या तुमने मेरी डायरी पढ़ ली?
निरंजन-हाँ!
मैं-मगर कुमुदिनी से कुछ न कहना।
निरंजन-बहुत अच्छा, न कहूँगा।
मैं-इस वक़्त किसी सोच में हो। मेरा डिप्लोमा देखा?
निरंजन-घर से ख़त आया है, पिता जी बीमार हैं, दो-तीन दिन में जाने वाला हूँ।
मैं-शौक़ से जाइए, ईश्वर उन्हें जल्द स्वस्थ करे।
निरंजन-तुम भी चलोगे? न मालूम कैसा पड़े, कैसा न पड़े।
मैं-मुझे तो इस वक़्त माफ़ कर दो।
निरंजनदास यह कहकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपड़े बदले और मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से खराब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयीं। अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज़ थी? उसने मुझे क्यों ख़बर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का ख़त मिला। काँपते हुए हाँथों से खोला, लिखा था-मैं बीमार हूँ, मेरी जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा क़िस्सा तमाम हो जाएगा। आखिरी वक़्त तुमसे न मिलने का सख्त सदमा है। मेरी याद दिल में क़ायम रखना। मुझे सख्त अफ़सोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। ख़त मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनिया आँखों में अँधेरी हो गयी, मुँह से एक ठण्डी आह निकली। बिना एक क्षण गँवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफेसर बोस से मुलाक़ात हो गयी। कालेज से चले आ रहे थे, चेहरे पर शोक लिखा हुआ था। मुझे देखते ही उन्होंने जेब से एक तार निकालकर मेरे सामने फेंक दिया। मेरा कलेजा धक् से हो गया। आँखों में अँधेरा छा गया, तार कौन उठाता है। और हाय मारकर बैठ गया। लीला, तू इतनी जल्दी मुझसे जुदा हो गयी!

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